Saturday, March 26, 2011

अफसाने

(1)
ज़िन्दगी जी लिया तुमने बहुत तो
अब जिंदा क्यूँ हो ...
अभी तो मेरी हज़ारों ख्वाईसे बाकि है
कुछ तेरे लिए मेरे लिए...
अभी बोलना सिखा है मैंने तो
तुम खामोश क्यूँ हो ....
कल साथ - साथ चलेंगे इस ज़हां में
कुछ तेरे लिए मेरे लिए...
(2)
एक अंजानी आहट ने रोक दिया सफ़र मेरा,
वर्ना हम भी चले थे उन्हें रिझाने को :
आज हम आदमी बन गए काम के इस ज़माने में,
वरना मेरा भी आज राह होता मैखाने को !
(3)
हम अकेले है तो क्या गम है,
सफ़र में हूँ , कोई तो साथ आएगा !
जीवन की डोर तो बहुत लम्बी है,
कभी कोई तो आवाज़ लगाएगा !!

Tuesday, March 1, 2011

बड़ा

बड़ा होने में क्या मज़ा है... अब जाना ! बड़ा हुआ पर बड़ा बन नहीं बन पाया रह गया वही धरा पर ... अब तो आसमान की ओर सर उठा सकता हूँ उस जैसा बड़ा नहीं बन सकता ! ए ज़माना ही ऐसा है ना कोई माई - बाप , ना पहुँच .... ना दलित , ना अल्पसंख्यक ! फिर कौन सुध ले ... कैसे बनू बड़ा ! अच्छा होता की बच्चा ही रहता, जी भर मस्ती करता, अपनों का प्यार पाता ना चिंता , ना फिक्र !
फिर क्यों सपना देखा बड़ा होने का ...! अब तो सब नाराज़ ही रहते है .. दोस्तों की मस्ती ग़ुम हो गयी .. प्रेयसी कब आयी और गयी पता ही नहीं चला ! मै बड़ा होकर भी रह गया तन्हा, स्याह रात में आसमान की तरफ सिर उठा कर अनगिनत तारों को गिनने की कोशिश कर रहा हूँ ! ए जानते हुए की नहीं कर सकता पर दिल है इसे तो कही लगाना है सो लगा लिया .... अब जाना पैसे का मोल !
कल मै बच्चा था, आज बड़ा हूँ ... युवा हूँ ! कल जो हाथ नरमी से पुचकारते थे आज वो सख्ती से दुत्त्कारते है ! मेरे समझ के परे है ... समय है बितता है .. बितता गया मै युवा हो गया ! मैंने तो कुछ नहीं किया ! तब नहीं सोचता था जब बच्चा था अब सोचता हूँ .. कल क्या होगा ! लोग मुझे कैसे याद रखेंगे !
मै कैसे बड़ा बनू .. कभी खुद को देखता हूँ ... कभी समाज को ...... मै कुछ करना चाहता हूँ तो समाज रोक देता है या यूँ कहूँ कि हमारे संस्कार रोक देते है ...! हाँ संस्कार से याद आया ... आज के दौर में संस्कार है ही कहाँ ... बोफोर्स में ...., २ जी में ...., टेलीकाम में ...., अरे नहीं बाबा के पास ! काश बाबा के परिवार का होता उनका रिश्तेदार होता तो मै भी आलिशान बंगले में रहता ... आप गलत सोचते है .. जंगल और कुटियाँ अब ये केवल भग्नावाशेस है ! मुझे क्या पता पैसा कहाँ से आता है बस लोंग दे जाते है !
अरे भाई अपने आस - पास भूख - प्यास से भटकते लोगों में क्यों नहीं बाँट देते ..... पर नहीं ज़रूरतमंद लोगों को कुछ नहीं मिलता ... मिलता है फटकार ... दुत्तकार .... अपमान ! हाँ अपमान तो बहुसंख्यक संमाज़ का हो रहा है ....... दलित के नाम पर .... अल्पसंख्यक के नाम पर ...! ए समझ बचपन में नहीं था तभी हम हसाने पर हँस देते थे ... दुलारने पर गर्वित होते थे ! अब बड़ा हो गया हूँ ... कुंठित हो रहा हूँ .... रास्ते तलाश रहा हूँ बड़ा हो कर बड़ा बनाने का ........!