बिना किसी मात्राओं को लपेटे सीधा सादा सा चार अक्षर का ये शब्द बहुत ही गूढ़ है।देखने में जितना सीधा सा लगता है उतने ही जलेबीदार गहराई है जिसका अर्थ निकालना समझना आसान नहीं है।इसके भावार्थ की गहराई जीवन के हर पहलू को निगल जाती है।सरहद चाहे स्वयं के कर्तव्य की हो या परिवार की, सरहद गाँव की हो या शहर की, सरहद प्रदेश की हो या देश की, सरहद अभिव्यक्ति की हो या मूकभक्ति की, सरहद धर्म की हो या अधर्म की, सरहद संगत की हो कुसंगत की सबकी एक रेखा के दायरे में सिमटे है… बस एक ओर अपनापन प्यार एक दूसरे से मुहब्बत, भाईचारा है तो दूसरी ओर एक दूसरे के रक्त के प्यास, लालच ईष्या, वैमनस्य का भाव…।
इस रेखा को समझना उसके सीमा के दायरे में कैसे रहना है, यह समझना बहुत ही आसान है। आप को दूसरे के प्रति बूरे विचारों का मात्र परित्याग ही तो करना है देखिए कितना सरल है पर क्या ऐसा कर पाते हैं। शायद तब तक नहीं जब तक स्वयं का कुछ इस आग में खो न जाये या झुलस न जाये…। विवेक जो नुक़सान होने पर परिलक्षित होता है उसे हर समय परिलक्षित होने दे। सरहद को सरहद ही रहने दे उसे तोड़ने या नकारात्मक भाव से उस पार जाने की कोशिश सुखद नहीं होता है।
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